‘ भावनाओं ’ का मुल्क

अफजल गुरु

संसद भवन हमारे लिए मसजिद और मंदिर की तरह है। जहां एक राष्ट्र, एक मुल्क का मुल्क का एहतेराम पूरी अकीदत और आस्था के साथ किया जाता है। ये अलग बात है कि देश भर में आजादी के बाद से होते रहे करोड़ों-अरबों के घोटाले की बुनियाद भी यहीं बैठने वाले सांसद नाम के कुछ दलाल डालते रहे हैं। यहीं से नीतियों को कुछ खास लोगों के फायदे के लिए तोड़ा-मरोड़ा जाता है। आज की कारपोरेट जुबान कहें तो यहीं बैठकर सरकारों में लाबिंग की जाती है। कि किस पॉलिसी के तहत किस कारपोरेट घराने को फायदा पहुंचाना है। इसके लिए कौन-से विधेयक और कितने सांसदों की सहमति की जरूरत होगी। (इस पर एक दिलचस्प रिपोर्टिंग या स्टिंग हो सकती है कि दिल्ली में सांसदों का अधिकतर समय किस काम में खर्च होता है।) बहरहाल सत्ता के गलियारों मेंं लगातार चल रहे इस घिनौने खेल को साधारण भारतीय भी जानता है। लेकिन----
संसद की ये गोलाकार और साफ सुथरी इमारत फिर भी हमारे लिए आस्था और इबादत का केंद्र है। क्योंकि हम भारतीय हैं। हमें अपने राष्ट्र और संविधान में यकीन है। और इसलिए इस पर हमला हमारी अस्मिता और हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान पर हमला है। फिर भी ---
अफजल गुरु को फांसी के लिए जो दलील दी जा रही है वह हैरान करने वाली कम और डर पैदा करने वाली कहीं ज्यादा है। सुप्रीम कोर्ट की दलील है कि लोगों की भावनाओं की संतुष्टि के लिए यह फैसला सुनाया गया है। बल्कि कहना चाहिए कि इस फैसले को सुनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था को मजबूर होना पड़ा है। तो क्या अब लोगों की जिंदगियों के फैसले जनभावना के दबाव में लिए जाएंगे। अगर यही मान लिया जाए तो कश्मीर को मुसलमानों को हवाले कर दिया जाना चाहिए और अयोध्या की विवादित जमीन पर राम मंदिर जल्दी से जल्दी बना दिया जाना चाहिए। पंजाब को सिखों के लिए छोड़ देना चाहिए और मणिपुर व नागालैंड को भी देश से अलग कर दिया जाना चाहिए। गुजरात दंगों की जांच के लिए गठित दर्जनों सरकारी-गैरसरकारी समितियों और आयोगों को फौरन खत्म कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि वहां जो भी हुआ, उसमें भी एक बड़े समूह की भावना ही छिपी हुई थी। लेकिन यह सब करने के लिए धर्म निरपेक्ष यानी डेमोक्रेसी के नाम के मुखौटे को भी उतार फेंकना होगा। तब खुलकर जनभावनाओं का साथ दिया जा सकता है। अभी थोड़ी तकलीफ हो रही होगी। श्रीलंका, वर्मा और पाकिस्तान जैसे मुल्कों में सरकारें यहीं तो कर रही हैं। हमने अभी-अभी बेकार में बोधगया और पटना में श्रीलंका के राष्ट्रपति का विरोध किया। जनभावनाओं को ही पूरा  करना अगर पैमाना या मीटर है तो श्रीलंका और पाकिस्तान हमारा बड़ा आदर्श बन सकते हैं। श्रीलंका में तमिलों का तो पाकिस्तान में निचले दरजे के मुसलमानों और अल्पसंख्यक हिंदुओं को दमन का शिकार वहां की जनभावाना की वजल से ही तो हो रहा है। बहरहाल एक तस्वीर सामने उभरती है----कल कोई भी सडक़ चलता आदमी इस देश की सबसे सर्वोच्च संस्था के जरिये अपनी जान गंवा सकता है। उसका मुजरिम होना जरूरी नहीं होगा। जरूरी ये होगा कि इससे कितने सारे लोग संतुष्ट हो सकते हैं। ये तय हो जाए तो किसी को भी फांसी के तख्ते तक ले जाया जा सकता है। इसके लिए न साक्ष्य की जरूरत होगी। न कानूनी शोध-पड़ताल की। क्या ये तस्वीर खौफ पैदा करने वाली नहीं है?
जो भी हो यह समय भाजपा जैसा ताकतों को डुगडुगी बजाने का भी है। कहीं लोकतंत्र के हाट में कांग्रेस ही अकेला मदारी साबित न हो जाए ---फिलहाल भाजपा की चिंता यही होनी चाहिए। और है भी। अफजल के फांसी के बाद भाजपा का एक बड़ा खेमा फांसी में देरी के पीछे कांग्रेस की मंशा पर सवाल उठा रहा है। क्यों।