उसके जाने के बाद पहली बार हम रोये

रांची में कुछ मित्रों से निवेदिता का नाम सुना था। टुकड़ों में कुछ पढ़ा भी था तो जहन में उन्हें लेकर कोई  पक्की तस्वीर नहीं बनी थी। दो दिन पहले छात्र नेता चंद्रशेखर पर लिखा गया उनका संस्मरण मोहल्ला लाइव पर पढ़ा तो उनसे बात किए बिना नहीं रह सका। फोन पर ही उन्होंने बताया कि वे चंद्रशेखर पर और भी काम कर रही हैं। और शायद यह किताब की शक्ल में सामने आए। बहरहाल निवेदिता के संस्मरण का यह टुकड़ा कई मायनों में ध्यान खींचता है। भाषा का ऐसा बहाव, शब्दों की ऐसी सजगता और विचारों के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता अब दुलर्भ  होती जा रही है।

गरमी के मौसम के आखिरी दिनों में और पतझड़ के सारे मौसम में गंगा भरी-भरी ही रहती। क्लास के बाद घड़ी – दो घड़ी सांस लेने हमलोग उसके किनारे बैठ जाते थे। गंगा की कल-कल सुनते हुए आंखें बंद किये पड़े रहते। दरख्तों से घिरा पटना कॉलेज के पीछे का वह हिस्सा हमलोगों की आरामगाह था। चमकीली घूप में भी गंगा को छूकर गुजरने वाली हवा गीली-गीली होती थी। शाम को हवा में खुनकी होती और आकाश खुला होता। जाड़ों में पेड़ों के ऊपर सफेद घुंध के फाहे तिरते रहते। मेरी आखिरी बस पांच बजे होती। इसलिए चार बजे तक का समय हमारे पास होता। उन दिनों पटना विश्वविद्यालय के पास कई बसें होती थीं। लड़कियों की बस कभी देर नहीं होती न कभी नागा होता। इसकी वजह थी हर लड़की कंडक्टर को चार आने देती थी। हम काफी सस्ते में कॉलेज पहुंच जाते। आज इतने सालों बाद भी पटना कॉलेज वैसे ही खड़ा है। बांहें पसारे पुराने यार की तरह, जिसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हैं। जैसे उम्र गुजरते हुए प्यार के निशान छोड़ देती है। मेरा मन कर रहा है कि मैं अपने गुजरे जमाने को खींचकर अपने पास बुला लूं। पूछूं कि क्या तुम्हें वे दिन याद हैं? तुम ही तो हो हमारे अनुभवों की सारी जमापूंजी के राजदार। कितने अधूरे हैं हम तुम्हारे बगैर। वह हंसा और स्मृतियों के बंद दरवाजे से बाहर निकल आया।
1980-82 का वह दौर
सब्ज जमीन घास से इस तरह ढंक गयी है गोया यह कोई नर्म बिस्तर हो। दिन के उजाले में ओस की बूंदें जुगनू की तरह चमक रही हैं। सामने एक नौजवान आ रहा था। मैंने उसे रोका। राजनीतिशास्त्र की कक्षा? सामने है! इस गलियारे के बाद। एक पगडंडी ऊपर की और जाती है। फिर गलियारा, गलियारे से होते हुए राजनीतिशास्त्र की कक्षा। मुझे याद है – कक्षा में जाने के लिए लड़कियां अकसर शिक्षकों का इंतजार करती थीं। सिर्फ समाजशास्त्र के क्लास को छोड़कर। वहां मामला उलटा था। लड़कियों की तादाद इतनी थी कि लड़के शिक्षक का इंतजार करते थे। राजनीतिशास्त्र में हम तीन लड़कियां थीं। मैं, पूनम और कविता। कविता झारखंड से आयी थी। काफी तेज तर्रार। जीन्स पहनती थी। उन दिनों लड़कियों का पटना में जीन्स पहनना बड़ी बात थी। वह भी को-एड कॉलेज में। क्लास में हमारा पहला दिन था। हम आगे की बेंच पर जाकर बैठ गये। देखा लड़के मुस्कुरा रहे हैं। बोर्ड पर बड़े-बडे हर्फ में लिखा है – कविता मैं तेरे प्यार में कवि हो गया। प्यार का ये इजहार बड़ा फिल्मी था। कविता शर्म से पानी-पानी हो गयी। मैं उठी और बोर्ड पर लिखा यह जुमला मिटा दिया। लड़के ताली बजाने लगे। मैंने मोर्चा संभाला – कहा कि अगर सच में चाहते हो कि लड़कियां भी तुमलोगों से प्यार करें तो पहले दोस्त बनो। यह फिल्मी तरीका लड़कियों को रास नहीं आएगा। मैं पांच मिनट तक बोलती रही। जब बैठी तो पूरा क्लास खामोश था। उन्हें यकीन नहीं आ रहा था कि कोई लड़की इस तरह प्रतिक्रिया दे सकती है। इसका नतीजा अच्छा रहा। उनमें से कई मेरे अच्छे दोस्त बने जो दोस्ती आजतक कायम है।
पटना कॉलेज में दाखिला लेने के पहले मेरा परिचय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े छात्र संगठन एआईएसएफ से हो चुका था। वह 80 का दौर था। सोवियत संघ के विघटन का दौर। पूरी दुनिया में मार्क्‍सवाद को लेकर बहस चल रही थी। ग्लासनोस्त और प्रेस्त्रोइका के फलसफे ने सोवियत संघ की समाजवादी सत्ता को गहरी चुनौती दी थी। रूस को छोड़ कर सभी राज्यों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। सोवियत संघ का विघटन दुनिया के इतिहास के लिए एक नयी परिघटना थी। मार्क्‍सवादियों के लिए नयी चुनौती। जाहिर है, इसका असर हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टियों पर भी पड़ा। फिर भी मार्क्‍सवाद नयी पीढ़ी को आकर्षित कर रहा था। पटना कॉलेज में वाम छात्र संगठनों का दबदबा था। मैं पहली बार वहीं शीरीं से मिली। आमतौर पर ऑनर्स का क्लास आठ बजे से होता था। पर आज क्लास सस्पेंड हो गया। हमलोग गर्ल्‍स कामन रूम में मस्ती कर रहे थे। अचानक एक पतली-दुबली सांवली लड़की मेरे पास आयी। उसने पूछा तुम निवेदिता हो। मैंने सहमति में सर हिलाया। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा मैं शीरीं। कॉलेज में तुम्हारा स्वागत है! अच्छा लगा मुझे। उसने कहा क्लास के बाद हम तुम्हें लेने आएंगे। कुछ नये साथियों से तुम्हारा परिचय होगा। क्लास के बाद शीरीं मुझे कॉलेज के सामने एक किताब की दुकान पर ले गयी। पीपुल्स बुक हाउस। आज वहां वाणी प्रकाशन है। किताबों से भरी उस दुकान के भीतर एक और कमरा था। जहां एक छोटी-सी मेज और कुछ कुर्सियां लगी थीं। वहीं मैं अपूर्व समेत कई साथियों से मिली। लंबा कद, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें। शीरीं ने परिचय कराया ये अपूर्व हैं। उन दिनों पीपुल्स बुक हाउस वामपंथी छात्र संगठनों का अड्डा हुआ करता था। क्लास खत्म होते ही हम वहीं पहुंच जाते थे। अगर कोई उस दौर का इतिहास लिखे तो पीपुल्स बुक हाउस कई आंदोलनों और प्रेम संबंधों के बनने-बिगड़ने के इतिहास का साक्षी होगा। 
दुनिया में समाजवाद को लेकर जो बहस हो रही थी उसका असर हमारे छात्र संगठनों पर भी था। हम सब के मन में भी ढेर सारे सवाल उठ रहे थे। सोवियत संघ के बारे में कई बातें छन कर बाहर आ रही थीं। कुछ लोगों को इस बात की खुशी थी कि दुनिया के नक्शे से समाजवाद धराशायी हो जाएगा। खूब गर्मागर्म बहस होती। पार्टी के भीतर ऐसे कम लोग थे जो हमारे मन में उठ रहे सवालों का जबाव दे पाते। हमारी सबसे बड़ी चिंता होती कि कैसे छात्रों को आंदोलन से जोड़ा जाए। ऐसे सवालों का किस तरह सामना किया जाए? एक दिन तय हुआ कि हमलोग वॉलपेपर निकालें। वॉल पेपर के लिए निश्चित जगह तय की गयी। यह समझ बनी कि हम समाजवाद से जुड़े सवालों के साथ-साथ छात्रों की समस्याओं पर भी खबर देंगे। कॉलेज की दीवार का एक कोना चुना गया। जिनके अक्षर सुंदर थे, उन्हें लिखने का जिम्मा दिया गया। यह प्रयोग सफल रहा। अब हर रोज छात्रों की दिलचस्पी रहती कि आज क्या नयी बहस है।
आंदोलन के दौरान मेरी और शीरीं की दोस्ती का रंग गहरा होता गया। उससे खूब बातें होती थीं। हम दिन भर साथ-साथ होते। वहीं पास में इप्टा इंडियन पीपुल्स थिएटर (इप्‍टा) से जुड़े कलाकारों का रिहर्सल होता था। कब हम एआईएसएफ में होते कब इप्टा में, पता ही नहीं चलता। हमारे पांवों में तो घिरनी लगी थी। दोस्तों की कतार लंबी होती जा रही थी। विनोद, श्रीकांत, फौजी, रश्मि, दिलीप और शैलेंद्र। शैलेंद्र झारखंड से थे। हमेशा हमारी चैकड़ी में शामिल रहते। गहरा सांवला रंग और बड़ी बड़ी आंखें। फैज अहमद फैज उसकी जुबान पर रहते। लंबी से लंबी नज्म उसे याद रहती थी। आज भी उसका तेवर बदला नहीं है। अक्सर हम जब पस्त होते, तो उससे कहते कुछ फैज को सुनाओ – वह शुरू हो जाता। उसकी आवाज में आज भी हमलोग फैज को सुनना पसंद करते हैं…
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के जहां
चली है रस्म के न कोई सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले जिस्म-ओ-जां बचा के चले
गर आज तुझ से जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे हैं ताला-ए रकीब तो क्या
ये चार दिन की खुदाई तो कोई बात नहीं
आज अगर मुझसे कोई पूछे कि मेरी जिंदगी का सबसे सुंदर लम्हा कौन सा था, तो मैं कहूंगी वे दिन जब हम जिंदगी के मायने सीख रहे थे, जब दुनिया को बदलने का सपना देख रहे थे। जब हमें यकीन था कि हम कामयाब होंगे। आज इतने वर्षों बाद जब मैं पीछे मुड़ कर देखती हूं तो लगता है कि कम्युनिस्ट आंदोलन ने और कुछ दिया हो या न दिया हो, पर जीवनदृष्टि तो दी ही। मानवता के पक्ष में खड़े रहने का साहस तो दिया!
मेरे लिए वह पूरा दौर एक फोटो एलबम की तरह है, जहां स्मृतियां बंद हैं। आप जब चाहें, उन स्मृतियों की खुशबू में भींग सकते हैं। स्मृतियों की पलकों पर समय की रंग-बिरंगी बुंदकियां नाचती हैं, फिर वे धीरे-धीरे हवा की तरह गुजर जाती हैं। जो हमेशा आपका साथ देते हैं, वे हैं दोस्त। मेरे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी मेरे दोस्त ही हैं। किसी दोस्त का जीवन से जाना कितना दुख देता है इसे वे ही समझ सकते हैं जिन्होंने दोस्त खोया है। हम सबने चंद्रशेखर को खोया। क्या पता था कि वह हमारी अंतिम मुलाकात थी। हर बार हम मिलते और जुदा होते। जुदाई के दिन बीच में झर जाते थे। आज भी लगता है वह कहीं से आ जाएगा और पूछेगा कि क्या घर में कुछ खाने को है? मैं नाराज होती तो कहता अरे तुम बैठो मैं बना लेता हूं। बनाता कभी नहीं। सभी दोस्त उसे या तो फौजी बुलाते थे या चंदू। अक्सर मैं उसे चिढ़ाया करती थी नागार्जुन की कविता पढ़कर… चंदू मैंने एक सपना देखा… वह मुस्कुराता रहता। उसकी हंसी बहुत खूबसूरत थी। बच्चों सी निश्छल।
चंद्रशेखर अंतर्मुखी था। अपने बारे में बहुत कम बातें करता था। एनडीए छोड़ने के बाद पटना आ गया था। हमलोग उसके दाखिले की कोशिश कर रहे थे। सेशन शुरू हो गया था इसलिए उसका दाखिला होना मुश्किल लग रहा था। चंद्रशेखर के पिता नहीं थे। मां उसके जीवन का केंद्र थी। अक्सर खतों में वह मां को ढेर सारी बातें लिखता जिसमें उसके निजी जीवन की बातें कम होतीं, देश-दुनिया को बदलने की बातें ज्यादा। उसकी छटपटाहट खतों में दिखती। वह लिखता – इस सड़ी-गली व्यवस्था से मैं कभी समझौता नहीं कर सकता। चंद्रशेखर ने भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की सदस्यता ले ली और छात्रों के मोर्चे पर जमकर काम करने लगा। सांस्कृतिक गतिविधियों में उसकी गहरी दिलचस्पी थी। उन दिनों सबसे ज्यादा अड्डा विनोद के यहां लगता था। विनोद बीमार थे। बीमार को देखने के बहाने हम वहीं जमे रहते। कविताओं का पाठ होता। कहानियां पढ़ी जातीं। चंद्रशेखर के पसंदीदा शायरों में से थे पाब्लो नेरुदा और पाश। विनोद के घर के अलावा शीरीं और मेरे घर पर लड़कों का खूब अड्डा लगता। मेरा घर अड्डे के लिए सबसे मुफीद जगह था।
मेरे पिता कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। उन्होंने हमें ऐसा वातावरण दिया था कि हम खुल कर बातें करते। बातों में अक्सर मां, पापा भी शामिल रहते। ऐसा माहौल कम ही घरों में मिलता है जहां लड़के और लड़कियां खुलकर बातें कर सकें। हम चार बहनें और दो भाई हैं। मैं सबसे बड़ी। मेरी तीनों बहनें कथक सीखा करती थीं। छोटा भाई आशीष तबला बजाया करता था। हमारी शाम संगीतमय हुआ करती थी। बहनें कथक करतीं। संदीप तबला बजाता। संदीप उन दिनों इप्टा की गायन टीम में हुआ करता था। खूब अच्छा तबला बजाता। तबले पर उसकी उंगलियां थिरकतीं तो झूमने का मन करता। दिलीप इप्टा का मुख्य गायक था। उसकी आवाज में बड़ी मिठास थी। वर्षों से उसकी आवाज नहीं सुनी है। नहीं जानती अब भी उसकी आवाज में वही कशिश है या नहीं। यह वह दौर था जब इप्टा में लड़कियों की अच्छी तादाद थी। रश्मि, शंपा, कविता, सोना, मोना, रूपा, शुभा, माया समेत कई लड़कियों की उपस्थिति ने इप्टा को सांगठनिक मजबूती दी थी। रश्मि अच्छी अभिनेत्री थी। अलका की आवाज में खूब खनक थी। अगर उसने संगीत को समय दिया होता तो शायद उसकी गायकी पर दुनिया को नाज होता। इप्टा से जुड़ने के बाद मैंने अपनी तीनों बहनों को जोड़ा। शंपा और कविता समेत कई लड़कियों को हम संगठन से इसलिए जोड़ पाये कि इप्टा और एआईएसएफ ने विश्वविद्यालय में अपनी गहरी पहचान बनायी थी। आज रंगमंच में अच्छी अभिनेत्रियों की कमी खटकती है। इसकी बड़ी वजह है कि महिलाओं को जोड़ने की कभी सार्थक पहल नहीं की गयी, न ही वैसे नाटक किये जा रहे हैं, जिनमें अभिनेत्रियों को जगह मिले।
चंद्रशेखर उन दिनों अक्सर हमारे घर आया करता था। जब सब दोस्त साथ होते तो कई मसलों पर जमकर बहस होती। धर्म, जाति, प्रेम जैसे तमाम मुद़्दे हमारी बहस के केंद्र में होते। हमलोग उन दिनों गर्दनीबाग में रहते थे। घर से लगा बड़ा सा टेरेस था। अक्सर गर्मियों में हम सब की शाम छत पर गुजरती। सामने खुला मैदान था। शाम हो गयी थी और मेरे सारे दोस्त जमे हुए थे। उन दिनों घर पर नानाजी आये हुए थे। हमलोग गप्प में मशगूल थे। मौसम खुशनुमा था। दरख्तों पर परिंदें रात का बसेरा लेने के पहले जोर-जोर से चहचहा रहे थे। हवा पेड़ों के झुरमुट में सांय-सांय कर रही थी। हमलोग मौसम का मजा ले रहे थे कि नानाजी ने पूछा कि तुम्हारे दोस्त कभी घर नहीं जाते? फिर उन्होंने सबसे कहा कि तुमलोग विद्यार्थी हो, पढ़ने के समय में पढ़ा करो। उस दिन उन्होंने सबका जमकर क्लास लिया। हम रुंआसे हो रहे थे। पता नहीं उन लागों को कितना बुरा लगा होगा। हमें लगा नानाजी के रहते ये लोग नहीं आएंगे। पर मजा तब आया जब सब दोस्त फिर आये और नानाजी से दोस्ती कर ली। चंद्रशेखर की नानाजी से सबसे ज्यादा पटती थी। वह उनकी बातें खूब गौर से सुना करता था। एक दिन उन्होंने उससे पूछा तुम कम्युनिस्ट हो? तुमलोग तो धर्म मानते नहीं! कभी रामायण पढ़ी है? उसने कहा पढ़ी है नानाजी। नाना ने पूछा – रामायण अच्छी लगती है? जी! कौन सा प्रंसग सबसे ज्यादा अच्छा लगता है? सीता-हरण! नानाजी चैंक गये। क्यों? वह हंसा! तुलसी रामायण में उसका बहुत सुंदर वर्णन है। सुनाऊं?
राम ने जंगल से गुजरते हुए लक्ष्‍मण से कहा – जंगल कितना खूबसूरत है। कौन इसकी खूबसूरती पर फिदा नहीं होगा! जब हिरण हमारी आहट पर भाग खड़े होते हैं तो उनकी हिरनियां उनसे कहती हैं, डरो नहीं… तुम तो जन्म-जन्म के हिरण हो, लेकिन ये दोनों तो एक सुनहरे हिरण की तलाश में आये हैं… भैया देखो, बसंत रुत कितनी खूबसूरत है! कामदेव सीता के खो जाने की वजह से मुझे उदास देखकर जंगल और शहद की मक्खियों और चिड़ियों की अयानत से मेरे ऊपर हमला करने आ रहे हैं। दरख्तों पर फैली हुई बेलें उसकी फौज के खेमे में हैं। केले और ताड़ के पत्ते उसके अलम, फलों की झाड़ियां उसके तीर-अंदाज और कोयल की आवाज गोया उसके जंगली हाथी की चिंघाड़ हैं। बगुले और मैनाएं कामदेव के ऊंट हैं। मोर और राजहंस उसके अरबी घोडे, पामोज परिंदे और जंगली तीतर उसके प्यादे हैं… चट्टानें कामदेव के रथ हैं आबाशार उसके नक्कारे, मुअत्तर हवाएं उसके जासूस… ए लक्ष्मण! जो कामदेव की फौज का मुकाबला कर सके, वह सचमुच बड़ा जरी है। कामदेवता का सबसे बड़ा हथियार औरत है।
नानाजी की आंखों से आंसू टपक रहे थे। वे उसकी आवाज के जादू में खोये रहे। जब संभले तो पूछा यह किसकी रामायण की कथा है। वह हंसने लगा। मैं खींच कर उसे ले आयी। क्या सुना रहे थे? उसने कहा तुम्हारे नानाजी को आज शीशे में उतार लिया। शुक्रिया अदा करो कुर्रतुल ऐन हैदर का। उनकी कहानी का अंश है। यार तुम्हारी याददाश्त जबरदस्त है। मान गये। आज चंद्रशेखर की बेतहाशा याद आ रही है। वह ऐसा ही था। अपने भीतर जाने कितनी दुनिया समेटे हुए।
हमारी अंतिम मुलाकात अपूर्व के घर हुई थी। जब सीपीआई एमएल ने उसे सीवान में जाकर काम करने का जिम्मा दिया था। मां भी आयी हुई थी। इस बात से परेशान थी कि वह वहां काम नहीं करे। मां ने हमलोगों से कहा कि उसे समझाओ। सीवान में शहाबुद्दीन का आतंक था। आज भी उसका आतंक पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। हमलोगों ने कहा, तुम्हें अभी दिल्ली में ही काम करना चाहिए। तुम्हारी वहां जरूरत है। वह हमारी बातों से दुखी हो गया। उसने पूछा, क्या तुमलोग समझते हो शहाबुद्दीन के डर से हम काम करना छोड़ दें? क्या डर कर राजनीति की जा सकती है? हमलोगों ने समझाया कि डरने की बात कौन कर रहा है, पर लड़ाई लड़ने के पहले अपनी तैयारी करनी चाहिए। वह माना नहीं। उसके कुछ ही दिनों बाद उसकी हत्या की खबर आयी। फोन पर शकील की भर्रायी हुई आवाज आयी। बुरी खबर है निवेदिता। चंद्रशेखर नहीं रहा। मुझे समझ नहीं आया, क्या बोल रहे हैं शकील। क्या कह रहे हो! यह सच है! वे रो रहे थे, रात के सन्नाटे में मैं पत्थर-सी बैठी रही।
कुछ दुख होते हैं, जिनके सामने सिर्फ पत्थर हुआ जा सकता है। देर रात तक हमलोग पूरब के घर बैठे रहे। सुबह सीवान के लिए निकल पड़े। समझ में नहीं आ रहा था कि हम मां का सामना किस तरह करेंगे। माले पार्टी ऑफिस में नीचे जमीन पर वह पड़ा हुआ था। जैसे गहरी नींद में हो। चेहरे पर चिरपरिचत मुस्कान लिए। कैसी विचित्र बात है, सुखी दिनों में हमें अनिष्ट की छाया नहीं दिखाई देती। जैसे हमें विश्वास हो कि हम जिंदगी भर साथ रहेंगे। उसके जाने के बाद पहली बार हम रोये थे। बेबस, पागलों की तरह। उसकी शव यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। जो शामिल नहीं थे वे अपने घरों से, छत की मुंडेरों पर खिड़कियों से देख रहे थे। उस यात्रा में विनोद मिश्र साथ चल रहे थे। दुख से भीगे हुए। मैं उबल पड़ी थी उन पर। चंद्रशेखर की मौत के लिए आपलोग भी जिम्मेदार हैं। बिना किसी तैयारी के आपने उसे यहां क्यों बुलाया। उस हत्यारे से लड़ने के लिए निहत्था छोड़ दिया। विनोद मिश्र कुछ नहीं बोले, रूमाल से अपने चश्मे के शीशा को पोंछा और बादलों में डूबते सूरज की पीली आभा को देखते रहे… जिसकी महीन क्लांत छाया चंद्रशेखर की देह पर पड़ रही थी।
हमलोग कुछ देर वैसे ही अवसन्न राख के ढेर के सामने बैठे रहे। धूप पुरानी बुझी हुई चिताओं की काली कतार पर चली आयी थी। वह सूनी आंखों से उठती हुई लपटों को देख रहे थे। धुंध और धुएं में चमकती हुई आकृति। ये मां थी। उसके आंसू सूख गये थे। जैसे सागर ने अपना सारा जल त्याग दिया हो। मां ने कहा, तुम्हें बोलना होगा मेरी बच्ची। मेरे कानों में मां के शब्द गूंज रहे हैं। बोलो मेरी बच्ची बोलो! अपने दोस्त के लिए! न्याय के लिए! उन आने वाले तमाम दिनों के लिए – आंसुओं से भरे गले से मैंने ऊंचे स्वर में कहा – वे हत्यारे फिर शिकार पर निकले हैं, आज हमारी सड़कों पर तबाही मचा रहे हैं। वह देखो जो शैतान की तरह चमक रहा है, प्रहार करने के लिए उठा है – आओ हमारा भी कत्ल करो। आओ हम देखें तुम्हारी ताकत!
पूर्वा मेरा हाथ खींच रही है। चुप हो जाइए आप। वह रो रही है, मुझे होश नहीं। शहाबुद्दीन! आओ, देखें तुम्हारी ताकत! एक चंद्रशेखर को मारा हजार चंद्रशेखर पैदा होंगे।
पूर्वा ने मुझे खींच कर पकड़ लिया। हम दोनों फफक कर रो पड़े। बादलों के टुकड़े में सूरज छुप गया था, एक सावंली सी मंद रोशनी शहर की छतों पसर गयी। मन में आग लिये हम सब लौट आये।
दुख बीत जाता है। अगर बीते नहीं तो जीना मुश्किल होगा। सुख कभी पूरा नहीं होता है। चंद्रशेखर ने जब सीपीआई छोड़ी, तो काफी परेशान रहता था। मौजूदा पार्टी नेतृत्व को इस बात की चिंता नहीं थी कि उनका एक साथी गहरी पीड़ा में है। उसके मन में पार्टी से जुड़े कई सवाल थे, जिस पर कम से कम बात तो होनी ही चाहिए थी। सोवियत संघ में भले ही ग्लासनोस्त और प्रेस्त्रोइका की जमीन फैल रही थी पर सीपीआई अपने भीतर किसी तरह के बदलाव से डर रही थी। पार्टी के भीतर यह समझ थी कि अगर यहां भी विचारों के स्तर पर इतनी छूट दी गयी, तो पार्टी का सांगठनिक ढांचा चरमरा जाएगा। पर नयी हवा को जब सोवियत संघ नहीं रोक पाया, तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कैसे रोक पाती। वे समझ नहीं पाये कि नौजवानों पर स्तालिनी डिसिप्लिन नहीं चलेगा। जो लोग पार्टी लाइन से अलग होते, वे या तो अवसरवादी होते या समझौतापरस्त। इसी उधेड़बुन में चंद्रशेखर दिल्ली चला आया और आइसा से जुड़ गया। वैचारिक स्तर पर तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों में बहुत बुनियादी फर्क नहीं है, पर इनके बीच कभी व्यापक एकता नहीं बन पाती। कई बार ये बुर्जुआ पार्टी से समझौता कर लेते पर एक-दूसरे से समझौता करने में सैद्धांतिक मतभेद आड़े आ जाता। चंद्रशेखर को माले के साथ जुड़ने पर दिल्ली में नयी जमीन मिली। छात्रों के बीच उसने जमकर काम किया। पर वह हमेशा मानता था कि बतौर कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई में विचारों की आजादी ज्यादा है। फिर भी उसके दिल में कहीं फांस थी कि वह हमलोगों से मिलने में कतराने लगा। मैं अखबार में काम करती थी, इसलिए वह जब भी बिहार आता मुझे उसकी भनक मिल जाती।
पटना में विनोद मिश्र आये हुए थे। उनका प्रेस कांफ्रेंस था। मुझे पता था कि चंद्रशेखर पार्टी ऑफिस में है। प्रेस कांफ्रेस के बाद मैं उससे मिलने गयी। मैंने कहा, तुम यहां क्या कर रहे हो? घर चलो। उसके बिना बोले मैंने उसका सामान उठाया और हम रिक्शे से घर आ गये। मैंने कहा पार्टी तुमने बदल ली, इसका मतलब यह तो नहीं कि दोस्त भी बदल जाएंगे। और तुम कितनी दूर ही गये हो। लेनिन से स्टालिन तक। हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े। उसकी आंखें डबडबा गयीं। विचलित सी कर देनेवाली आवाज में उसने कहा, तुम्हारी यही खासियत है तुम किसी को खुद से दूर जाने का मौका नहीं देती।
आज सोचती हूं कि उसे दूर जाने से कहां रोक पायी?
                                     (निवेदिता झा से niveditashakeel@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)