गुलजार की मशहूर कविता- खुदा

खुदा-1

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,
दुआ में जब,
जम्हाई ले रहा था मैं--
दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं !
मैं जब से देख सुन रहा हूँ,
तब से याद है मुझे,
खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,
खुदा के हाथ में है सब बुरा भला--
दुआ करो !
अजीब सा अमल है ये
ये एक फ़र्जी गुफ़्तगू,
और एकतरफ़ा--एक ऐसे शख्स से,
ख़याल जिसकी शक्ल है
ख़याल ही सबूत है.

खुदा-2

मैं दीवार की इस जानिब हूँ .
इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी !
ओस भी गिरती है पत्तों पर,
आ जाये तो आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है.
बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,
आँखों से गुम हो जाती है,
जो मौसम आता है,सारे रस देता है !

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन--
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.

खुदा-3


पिछली बार मिला था जब मैं
एक भयानक जंग में कुछ मशरूफ़ थे तुम
नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे
इससे पहले अन्तुला में
भूख से मरते बच्चों की लाश दफ्नाते देखा था
और एक बार ...एक और मुल्क में जलजला देखा
कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब
                            लौट रहे थे
तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने
आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते
कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश
तोड़ ताड़ के गेलेक्सीज के महवर तुम
जब भी जमीं पर आते हो
भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो
बड़े 'इरेटिक' से लगते हो
काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम






पाकिस्तान के जिला झेलम में १९३६ में जन्मे गुलजार का पूरा नाम  समपूरन सिंह कालरा है। आप "त्रिवेणी" छंद के सृजक और हिन्दी फ़िल्म उद्योग के जाने-माने गीतकार हैं।